राजस्थान मे प्रमुख मंदिर

राजस्थान मे प्रमुख मंदिर

मंदिरों का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता हैं। मंदिर निर्माण का प्रचलन गुप्तकाल में हुआ था, तो वहीं राजस्थान में मंदिरों के प्रथम अवशेष हमें बैराठ सभ्यता (जयपुर) से प्राप्त हुये हैं।
 
गुप्तकाल के प्रारम्भ (लगभग 300 ई.) से सातवीं सदी तक का काल मंदिर निर्माण का प्रारम्भिक व प्रायोगिक काल माना जाता है, तो वहीं इसके बाद के लगभग 300 वर्षों (700 ई.-1000 ई. तक) को विकास व क्षेत्रीय शैलियों के प्रस्फुटन का समय माना जाता है, लगभग 10वीं सदी में मंदिर निर्माण की तकनीक व कला अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेती है। 10वीं सदी के बाद राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत में बड़े पैमाने पर और भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ।
 

(1) मौर्य काल से गुप्त काल के प्रारम्भ तक (लगभग 300 ई.पू. से 300 ई. तक)

 
जयपुर के बैराठ (वर्तमान विराटनगर) से मौर्ययुगीन ईंटों व लकड़ी के बने गोल बौद्ध मंदिर (स्तूप या चैत्य) के अवशेष मिले हैं, तो वहीं चित्तौड़गढ़ के नगरी से लगभग मौर्य काल के एक बिना छत वाले मंदिर के अवशेष प्राप्त हुये हैं।
 
(II) गुप्त और गुप्तोत्तर काल (लगभग 300 ई. से 700 ई. तक)
 
इस काल के प्रमुख उदाहरण हैं- दर्रा का मंदिर (कोटा), चारचौमा का शिव मंदिर (कोटा), माकनगंज के मंदिर (चित्तौड़गढ़), शीतलेश्वर महादेव मंदिर (झालरापाटन, झालावाड़), कंसुआ का शिव मंदिर (कोटा) आदि। चिंत्तौड़गढ़ के पास नगरी से भी गुप्तकालीन एक मंदिर के अवशेष मिले हैं।
 
ध्यातव्य रहें – शीतलेश्वर महादेव मंदिर (झालरापाटन) राजस्थान का सबसे प्राचीन ऐसा मंदिर है जिसकी तिथि (689 ई.) निश्चित रूप से ज्ञात है।
 
III) गुर्जर प्रतिहार काल लगभग 700 ई. से 1000 ई. तक) के गुर्जर-प्रतिहार शैली (महामारू शैली) व उससे कुछ भिन्न प्रकार के मंदिर
 
लगभग 8वीं सदी से मध्य भारत सहित राजस्थान में जो क्षेत्रीय शैली विकसित हुई उसे गुर्जर प्रतिहार या महामारू शैली कहते हैं, जिसमें प्रारम्भिक निर्माण मण्डौर और मेड़ता के प्रतिहारों, सांभर के चौहानों और चित्तौड़ के मौर्यों ने करवाया, तो वहीं जालौर, कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों और उनके अधीनस्थ चौहानों, परमारों और गुहिलों ने इस शैली को आगे बढ़ाया। इस शैली में निर्मित्त मंदिरों को दो भागों में बांट सकते हैं-
 
1. पश्चिमी, उत्तरी एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान 1.
 
2. दक्षिणी राजस्थान एवं उत्तरी गुजरात
 
1. पश्चिमी, उत्तरी एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान-
 
= (A) प्रारम्भिक दौर (8वीं सदी और 9वीं सदी का प्रारम्भ) – इस दौर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मंदिर औसियाँ (जोधपुर), चित्तौड़गढ़ व आभानेरी (दौसा) में स्थित हैं, तो वहीं इस दौर के अन्य अवशेष लाम्बा, भुण्डाना, बुचकला, पीपाड़, मेनाल, आवां (कोटा) से भी मिलते हैं।
 
औसियाँ में सूर्य मंदिर, हरिहर मंदिर, महावीर मंदिर आदि प्रमुख हैं, जिनकी मुख्य विशेषताएँ हैं- कुछ मंदिरों में पंचायतन शैली का प्रयोग, त्रिरथ व पंचरथ तल विन्यास तथा आमतौर पर गर्भग्रह पर एक सुघड़ लेकिन लतिन शिखर।
 
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के कालिका मंदिर (मूलतः सूर्य मंदिर) व कुम्भश्याम मंदिर।
 
आभानेरी (बांदीकुई, दौसा) में दो विशाल अलंकृत जगतियों और एक अंलकृत मंच पर अवस्थित, कभी भव्य रहे मंदिर के अब खण्डहर ही बचे हैं।
 
(B) मध्यक्रम (19वीं सदी) कामेश्वर मंदिर (आऊवा, पाली), रणछोड़जी. मंदिर (खेड़, बाड़मेर), दधिमाता मंदिर (गोठ-मांगलोद, नागौर), नकटी माता मंदिर (भवानीपुरा, जयपुर), मगरमण्डी माता मंदिर (नीमाज, पाली) आदि।
 
( C) अंतिम दौर (10वीं सदी और 11वीं सदी का प्रारम्भ)-
 
नीलकण्ठेश्वर मंदिर (जसनगर, नागौर), हर्षनाथ मंदिर (सीकर), नीलकण्ठेश्वर मंदिर (पारानगर, अलवर), विष्णु मंदिर (औसियाँ, जोधपुर), विष्णु व सोमेश्वर मंदिर (किराडू, बाड़मेर) आदि।
 
ध्यातव्य रहें- सोमेश्वर मंदिर (किराडू) को गुर्जर प्रतिहार शैली (महामारू शैली) का अंतिम और सबसे भव्य मंदिर माना जाता है।
 
2. दक्षिणी राजस्थान एवं उत्तरी गुजरात (8वीं से 10वीं सदी)-उत्तरी गुजरात व दक्षिणी राजस्थान के इस काल में बने मंदिरों को महागुर्जर शैली में रखते हुये निम्न विशेषताएँ बतायी जाती हैं-
 
जगती का अभाव व पीठ का महत्त्व, विशेष प्रकार की द्वार शोभा, वेदीबन्ध में एक अंतर्पट्ट आदि, तो वहीं इसके प्रमुख उदाहरण हैं- घाटेश्वर मंदिर (बाड़ौली, चित्तौड़गढ़), जगत का अम्बिका मंदिर (उदयपुर), नागदा का सास-बहू मंदिर (उदयपुर), एकलिंगजी का लकुलीश मंदिर (उदयपुर), टूस-मंदेसर का सूर्य मंदिर, वरमाण का ब्राह्मण स्वामी मंदिर (सिरोही), बिलाणा के पास हर्ष का मंदिर (सीकर) आदि।
 

(IV) मारू-गुर्जर (सोलंकी) शैली का उद्भव

 
महागुर्जर शैली में स्थापत्य को प्रधानता मिली और महाभारत शैली में तक्षण कला को विशेषता प्राप्त हुई, तो वहीं 1000 ई. के बाद महागुर्जर और महामारू शैलियों के मिलन से एक नई शैली मारू-गुर्जर। सोंलंकी शैली का जन्म हुआ, जिसे एक ने स्थापत्य के गुण दिये और दूसरी ने अलंकरण 11वीं, 12वीं व 13वीं सदी में गुजरात व राजस्थान में बड़ी संख्या में बड़े व अलंकृत मंदिर बने जिन्हें मोटे तौर पर इस शैली के अंतर्गत रख सकते हैं।
 
मारू-गुर्जर (सोलंकी) शैली की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
 
1. ऊँचे व विकसित परंतु कम असरदार पीठ एवं वेदीबंध पीठ में गजथर, अश्वथर व नरथर का विशेष महत्त्व ।
 
2. जंघा में अलंकरण की रेलमपेल, मूर्तिकला में स्पष्ट गिरावट तथा सजावट अकसर रूटीन ।
 
3. खम्भे अपेक्षाकृत पतले, गोलाई प्रधान व खूब सजावटी तोरणों का प्रयोग।
 
4. द्वार अत्यधिक सजावटी परंतु सामान्यतया प्रभावहीन।
 
5. मण्डप पर अधिकतर समवर्णा (बैल रूफ) छतें तथा मण्डप प्रायः दौ या तीन मंजिला भी।
 
ध्यातव्य रहें – मारू-गुर्जर (सोलंकी) शैली का पहला बड़ा मंदिर मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर (गुजरात) है, तो वहीं राजस्थान में इस शैली में निर्मित्त प्रमुख मंदिरों में शामिल हैं- चित्तौड़गढ़ दुर्ग में समिद्धेश्वर (मूलतः त्रिभुवन नारायण मंदिर), महादेव मंदिर, औसियाँ (जोधपुर) में सच्चिया माता का मंदिर, किराडू (बाड़मेर) के तीन छोटे शिव मंदिर।
 
 
 

(V) राजस्थान के भूमिज शैली के मंदिर

 
मंदिर स्थापत्य के चरमोत्कर्ष काल में मंदिर निर्माण की नागर शैली के अंतर्गत मध्यप्रदेश व उत्तरी महाराष्ट्र में एक विशिष्ट उपशैली का विकास हुआ, जिसे भूमिज शैली के नाम से जाना जाता है। इस शैली की विशेषता इसके शिखर में परिलक्षित है तथा इसका शिखर मूलतः अनेकाण्डक या शेखरी शिखर का एक विशिष्ट प्रका होता हैं, तो वहीं सभी भूमिज मंदिर निरन्धार हैं। राजस्थान में इस शैली में निर्मित मंदिरों में सेवाड़ी (पाली) का जैन मंदिर, मेनाल (भीलवाड़ा) का महानालेश्वर मंदिर, रामगढ़ (बारां) का मण्डदेवरा मंदिर, बिजौलिया (चित्तौड़गढ़) का उण्डेश्वर मंदिर, झालरापाटन का सूर्य मंदिर, रणकपुर (पाली) का सूर्य मंदिर, चित्तौड़गढ़ का अद्भुतनाथ मंदिर शामिल हैं।
 
 
ध्यातव्य रहें – पाली जिले में स्थित सेवाड़ी का जैन मंदिर राजस्थान में भूमिज शैली का सबसे पुरा मंदिर (1010-20 ई.) है।
 
(VI) 14वीं सदी एवं उसके बाद के मंदिर
 
इसके प्रमुख उदाहरण हैं- जगदीश मंदिर (उदयपुर), जगत शिरोमणि मंदिर (आमेर), रणकपुर (पाली) के जैन मंदिर, डूंगरपुर का सोमनाथ मंदिर, जैसलमेर दुर्ग के जैन मंदिर आदि।
 
ध्यातव्य रहें – क्षेत्रपाल पूजा का सर्वाधिक प्रचलन राजस्थान में
 
है। फर्ग्यूसन ने हिन्दू कारीगरों द्वारा मुस्लिम आदर्श भवन बनाने पर मारू-गुर्जर शैली को इण्डो सार सैनिक शैली कहा है। महाराणा कुम्भा द्वारा बनाये गये सभी मंदिरों में प्रस्तर शैली का उपयोग हुआ है।
 
अखिल भारतीय स्तर पर मंदिर निर्माण की विशिष्ट शैलियाँ
 
शिल्पशास्त्र के अनुसार मंदिर निर्माण की तीन शैलियाँ हैं- नागर, द्रविड़ और बेसर। इसके अलावा लतिन, भूमिज, साधार, शैलियाँ तीन प्रमुख शैलियों में समाविष्ट हैं। उक्त तीन शैलियां निम्नलिखित हैं-
 
1. नागर शैली – उत्तरी भारत में हिमालय से लेकर विंध्याचल
 
तक प्रचलित मंदिर निर्माण शैली को नागर शैली/उत्तरी भारतीय शैली/आर्य शैली कहते हैं, तो वहीं इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं- ये मंदिर प्रायः चतुष्कोणीय (वर्गाकार) होते हैं, ऊँचे चबूतरे पर निर्माण, वर्गाकार गर्भगृह, गर्भगृह से जुड़ा हुआ प्रदक्षिणापथ, गुम्बदाकार शिखर (विमान), शीर्ष भाग आमलक (आंवला) अथवा कलश जैसा।
 
ध्यातव्य रहे – राजस्थान में नागर शैली के सर्वाधिक मंदिर मारवाड़ क्षेत्र में पाये जाते हैं, तो वहीं भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर नागर शैली का सर्वोत्तम मंदिर है।
 
2. द्रविड़ शैली – कृष्णा नदी से रामेश्वरम् तक (सूदूर दक्षिण)
 
मंदिर निर्माण शैली को द्रविड़ शैली/तमिल शैली कहते हैं, तो वहीं इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं- मंदिरों का आकार प्रायः अष्ट भुजाकार, पिरामिडनुमा उन्नत शिखर, मंदिरों का निर्माण विशाल प्रांगण के मध्य, भव्य गोपुरम (प्रवेश द्वार) का प्रयोग, शीर्ष भाग में गुम्बदाकार स्तूधिका आदि। इस शैली के विकास में चार राजवंशों का सर्वाधिक योगदान रहा हैं- पल्लव, राष्ट्रकूट, पाण्ड्य और चोल।
 
ध्यातव्य रहे- चोपड़ा मंदिर (धौलपुर) राजस्थान का प्रथम मंदिर हैं, जो द्रविड़ शैली में निर्मित हुआ।
 
3. बेसर शैली – विंध्याचल से लेकर कृष्णा नदी तक (दक्षिणापथ)
 
के क्षेत्र में प्रचलित मंदिर शैली को बेसर शैली/दक्षिणापथ शैली/मिश्रित शैली कहते हैं। बेसर शैली की संरचना (रूपाकार) नागर – शैली में और विन्यास (अलंकरण) द्रविड़ शैली का होता है। इस शैली का सर्वश्रेष्ठ उदारहण होयसल नरेश विष्णुवर्धन के काल में निर्मित – होयसलेश्वर मंदिर है।
 
– ये भी जानें –
 
एकायतन शैली – एकायतन शैली के देव मंदिर में एक ही देव मंदिर होता है, जिसके अंतर्गत एक गर्भगृह, सभामंडप एवं द्वार होते हैं।
 
> पंचायतन शैली-इस शैली के मंदिरों के अंतर्गत एक मुख्य (भगवान विष्णु का) मंदिर होता है तथा उसके पास अन्य छोटे चार मंदिर (शिव, सूर्य, शक्ति एवं गणेश के) होते हैं। ये चारों मंदिर मुख्य मंदिर के चारों कोनों में स्थित होते हैं।
 
 

राजस्थान के प्रमुख मंदिर

 

उषा मंदिर/मस्जिद, बयाना (भरतपुर)

उषा मंदिर भरतपुर जिले के ‘बयाना’ कस्बे में स्थित है, जिसका निर्माण ‘बाणासुर’ ने द्वापर युग में करवाया था। इस मंदिर में राजपूत व जैन कला का मिश्रण है। प्रेमाख्यान पर आधारित इस मंदिर का जीर्णोद्धार गुर्जर प्रतिहार राजा लक्ष्मणसेन की पत्नी ‘चित्रलेखा’ (चित्रागंदा) व उसकी पुत्री ‘मंगलाराज’ ने 936 ई. में करवाया था। 1224 ई. में दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने इसे तोड़कर मस्जिद में बदलवा दिया, तभी से यह मंदिर उषा मस्जिद के नाम से जाना जाता है।
 

लक्ष्मण मंदिर (भरतपुर) 

भरतपुर शहर के मध्य में स्थित लक्ष्मण मंदिर का निर्माण महाराजा बलदेव सिंह ने 19वीं शताब्दी के मध्य में करवाया था। यह भारत का एक मात्र लक्ष्मण मंदिर है। श्री लक्ष्मण जी भरतपुर के जाट राजवंश के कुल देवता है।
 

गंगा मंदिर (भरतपुर)

1846 ई. में इसकी नींव बलवंत सिंह ने रखी तथा 1937 ई. में महाराज ब्रजेन्द्र सिंह ने इसमें गंगाजी की मूर्ति स्थापित की, तो वहीं 84 खम्भों पर बना यह मंदिर हिन्दू, मुगल एवं बौद्ध शैली में बना हुआ है। इस मंदिर का निर्माण बारहदरीनुमा हुआ है।
 

गोकुलचन्द्र मंदिर (कामां, भरतपुर) 

काम्यक वन व कामवन के नाम से पौराणिक ग्रंथों में वर्णित कामां में पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के आराध्य गोकुलचन्द्र का प्रसिद्ध मंदिर है।
 
ध्यातव्य रहे- कामां (भरतपुर) में स्थित 84 खम्भों की मस्जिद की जगह पहले शिव व विष्णु का मंदिर था, जिसका निर्माण 8 वीं सदी में हुआ था परंतु मुस्लिम काल में इन मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बना दी गई।
 

एकलिंग जी का मंदिर (उदयपुर)

उदयपुर के उत्तर में स्थित नागदा (कैलाशपुरी) नामक स्थान पर एकलिंगजी का प्रसिद्ध शिव मंदिर है, जो लकुलीश सम्प्रदाय से संबंधित है। एकलिंग जी मेवाड़ के महाराणाओं के इष्टदेव व कुल देवता है। इस मंदिर का निर्माण बप्पा रावल ने 8वीं सदी में करवाया था। महाराजा रायमल ने इसे वर्तमान स्वरूप दिया तथा इस मंदिर में एकलिंग जी की चतुर्मुखी काले पत्थर की मूर्ति है। इसमें उत्तर मुख को ब्रह्मा, दक्षिण मुख को शिव, पूर्व मुख को सूर्य व पश्चिम मुख को विष्णु कहा जाता है। यह मंदिर राज्य में पाशुपात सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख स्थल भी है।
 
ध्यातव्य रहे-महाराणा इन्हें ही मेवाड़ राज्य का वास्तविक शासक मानते थे तथा स्वयं को उनका दीवान कहलाना पसंद करते थे।
 

अम्बिका देवी का मंदिर 

जगत (उदयपुर) में स्थित अम्बिका देवी के मंदिर में नृत्य करते हुए गणेशजी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का निर्माण अल्लट द्वारा 925 ई. में किया गया तथा यह मंदिर खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर से मिलता है जिस कारण इस मंदिर को ‘मेवाड़ का खजुराहो’ व राजस्थान का दूसरा खजुराहो कहते हैं। इस मंदिर में दुर्गा के कई रूप हैं जिसमें महिषासुर मर्दिनी रूप सर्वप्रमुख है।
 

सास – बहू का मंदिर, नागदा (उदयपुर) 

मेवाड़ की प्राचीन राजधानी नागदा में स्थित मंदिर मूलतः ‘सहस्त्रबाहु’ (भगवान विष्णु) का है, लेकिन अपभ्रंश होते-होते इसका नाम ‘सास-बहू का मंदिर’ हो गया। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना है। इनमें बड़ा मंदिर सास का तथा छोटा मंदिर बहू का है, तो वहीं इन मंदिरों का निर्माण दसवीं सदी में किया गया।
 

जगदीश मंदिर (उदयपुर) 

इस मंदिर का निर्माण महाराणा जगतसिंह प्रथम ने 1651 ई. में उदयपुर में स्थित सिटी पैलेस के नजदीक पिछोला झील के किनारे करवाया था।
 
ध्यातव्य रहे – यहाँ स्थित गरूड़ की प्रतिमा विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा कही जाती है। इसे ‘सपने से बना मंदिर’ कहा जाता है। इस मंदिर के चारों कोनों में शिव पार्वती, गणपति, सूर्य तथा देवी के मंदिर हैं। इस मंदिर का निर्माण पंचायत शैली में अर्जुन-भाणा व मुकुन्द की देखरेख में हुआ है।
 

मेवाड़ का अमरनाथ, गुप्तेश्वर मंदिर

उदयपुर जिला मुख्यालय से 10 किमी. दूर तीतरड़ी-एकलिंगपुरा के बीच हाड़ा पर्वत स्थित क गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर है, जो गिरवा के अमरनाथ के नाम से जाना जाता है। इसको ‘मेवाड़ का अमरनाथ’ भी कहा जाता है।
 

जावर का विष्णु मंदिर, उदयपुर 

जावर (उदयपुर) में रमानाथ कुंड और भगवान विष्णु के इस मंदिर का निर्माण रमाबाई द्वारा करवाया गया था। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना है जिसका शिल्पी ईश्वर था।
 

टूस का सूर्य मंदिर (मंदेसर, डबोक, उदयपुर) 

यह मंदिर एकायतन शैली में बना है, तो वहीं यहाँ स्थित मूर्ति में एक अप्सरा हाथी के सिर पर खड़ी है तथा एक प्रतिमा में भगवान सूर्य के साथ 2 स्त्रियों की मूर्ति है।
 

आहड़ के मंदिर (उदयपुर) 

यहाँ स्थित आदिवराह के मंदिर का निर्माण 953 ई. में अल्लट ने करवाया था, तो वहीं यहाँ स्थित सूर्य मंदिर में भगवान सूर्य सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं। यहाँ जगच्चंदसूरि ने 12 वर्ष तपस्या की थी।
 

शैव मंदिर (कल्याणपुर, उदयपुर) 

इसका निर्माण 7वीं सदी में किया गया।
 

स्कंधकार्तिकेय मंदिर (उदयपुर) 

इसका निर्माण छठी सदी में किया गया।
 

मच्छरनाथ मंदिर (उदयपुर)

यह मंदिर अपनी सांझियों के लिए प्रसिद्ध है जिस कारण इसे संझया मंदिर भी कहते हैं।
 

बोहरा गणेश मंदिर (उदयपुर)

आहड़ संग्रहालय के पीछे स्थित इस मंदिर का निर्माण महाराणा राजसिंह ने करवाया।

 

कंसुआ का शिव मंदिर (कोटा)

 
738 ई. में निर्मित्त कंसुआ का शिव मंदिर कोटा शहर में स्थित है। यहाँ एक ऐसा शिवलिंग भी है जो 1008 मुखी है। इस मंदिर में चतुर्मुखी शिवलिंग की पूजा होती है तथा इसमें लकुलीश व नृत्य गणेश का भित्ति चित्रण है, तो वहीं इस मंदिर का निर्माण मौर्यों द्वारा करवाया गया तथा यहीं कण्व ऋषि का आश्रम स्थित है।
 

मथुराधीश मंदिर (कोटा) 

पाटनपोल (कोटा) में भगवान मथुराधीश का मंदिर है जो भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। यहाँ दीपावली पर अन्नकूट, होली पर फागोत्सव तथा जन्माष्टमी पर नंद महोत्सव का आयोजन किया जाता है, तो वहीं यहाँ स्थित भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को 1670 ई. में दुर्जनशाल हाड़ा बूंदी लेकर आये थे। इस मंदिर की स्थापना वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभाचार्य के पुत्र विठ्ठलनाथजी द्वारा की गई थी जिसके कारण यह मंदिर वैष्णव संप्रदाय का प्रमुख पीठ स्थल है।
 

विभीषण मंदिर, कैथून (कोटा)

 तीसरी पाँचवीं सदी में निर्मित देश का एक मात्र विभीषण मंदिर कोटा जिले के कैथून कस्बे में स्थित है। इस मूर्ति का धड़ (शरीर) नहीं है। मंदिर में केवल विभीषण की मूर्ति के शीश की पूजा राम भक्त मानकर की जाती है।
 

गेपरनाथ महादेव (कोटा) 

कोटा में स्थित ‘गेपरनाथ महादेव का मंदिर’ जो जमीन की सतह से लगभग 300 फुट नीचे एक गर्भ में स्थित है। वर्ष 2009 में इस मंदिर की सीढ़ी टूट जाने के कारण कुछ श्रद्धालुओं की मौत हो गई थी।
 

श्री कपिल मुनि का मंदिर (बीकानेर) 

कोलायत (बीकानेर) सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि का तीर्थ स्थल है। यहाँ स्थित सरोवर के किनारे 52 घाट और 5 मंदिर बने हुए हैं। इस मंदिर में दीपदान होता है। यहाँ भरने वाला कोलायत जी का मेला जांगल प्रदेश का सबसे बड़ा मेला है, जिसे मारवाड़ का पुष्कर कहते हैं तथा यहाँ स्थित कोलायत झील में करणी माता के पुत्र लाखा की मृत्यु हो गई थी, जिस कारण चारण जाति के लोग इस मेले में भाग नहीं लेते हैं, तो वहीं कपिल मुनि का जन्म पुष्कर में हुआ था तथा इनके पिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि कदम व माता मनु की पुत्री देवभूति थी।
 

हेरंब गणपति (बीकानेर) 

हेरंब गणपति मंदिर का निर्माण जूनागढ़ में बीकानेर शासक अनूपसिंह ने करवाया था। इस अद्भुत मूर्ति की एक विलक्षण बात यह भी है, कि गणपति मूषक पर सवार न होकर सिंह पर सवार है, जो पूरे भारत में एकमात्र है, तो वहीं माना जाता है कि जब औरंगजेब ने 1669 ई. में मंदिर तोड़ो अभियान चलाया था उस समय अनूपसिंह ने मंदिरों से मूर्तियाँ एकत्रित कर सभी को जूनागढ़ में स्थापित करवाया, जिसमें सिंह पर सवार गणेशजी की भी मूर्ति है।
 
ध्यातव्य रहे – तैंतीस करोड़ देवी-देवता मंदिर (बीकानेर) में स्थित है, जिसका निर्माण अनूपसिंह द्वारा करवाया गया था।
 

भैरूजी मंदिर (कोड़मदेसर, बीकानेर) 

कोड़मदेसर बीकानेर के राठौड़ों की प्रारम्भिक राजधानी थी, जहाँ राव बीका ने भैरूजी मंदिर का निर्माण करवाया।
 
लक्ष्मीनारायणजी का मंदिर (बीकानेर) इसका निर्मात्ता राव लूणकरण था।
 
रतन बिहारी जी मंदिर (बीकानेर) – इसका निर्मात्ता महाराजा रतनसिंह (1846-51 ई.) था।

किराडू मंदिर (बाड़मेर) 

यह स्थान बाड़मेर तहसील के हाथमा गाँव के पास स्थित ‘हल्देश्वर’ पहाड़ी के नीचे स्थित है। सन् 1161 के शिलालेख से जानकारी मिलती है, कि यह जगह किरातकूप कहलाती थी। यहाँ पाँच मंदिर हैं जिसमें चार भगवान शिव के तथा एक भगवान विष्णु का हैं। इन मंदिरों का निर्माण 11 वीं 12वीं सदी में किया गया।
 
शिल्पकला के लिए विख्यात यह मंदिर ‘मूर्तियों का खजाना’ कहलाते हैं। किराडू की स्थापत्य कला भारतीय नागर शैली की है। राजस्थान के किराडू मंदिर खजुराहो के समान काम क्रीड़ाओं के चित्रण के कारण ‘राजस्थान का खुजराहो’ भी कहलाते हैं। इन मंदिरों में सागर मंथन, कृष्णलीला, रामायण व महाभारत के दृश्य दिखायी देते हैं तो वहीं इन मंदिरों के सामने तीन पैरों की महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति स्थित है।
 
यहाँ स्थित सोमेश्वर मंदिर प्रतिहार/महामास शैली में बना है। 1178 ई. में इस मंदिर पर मुहम्मद गौरी ने आक्रमण किया और उसके बाद अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भी इस मंदिर पर आक्रमण किया गया था।
 

हल्देश्वर महादेव पीपलूद (बाड़मेर) 

हल्देश्वर महादेव पीपलूद (मारवाड़ का लघु माउंट आबू) गाँव (बाड़मेर) के समीप छप्पन की पहाड़ियों में स्थित है।
 

श्री रणछोड़ राय जी का खेड़ मंदिर, बाड़मेर 

प्रमुख वैष्णव तीर्थ का पवित्र धाम श्री रणछोड़राय जी के मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1230 में हुआ था, जिसके प्रवेश द्वार पर गरुड़ की प्रतिमा है।
 
ध्यातव्य रहे – खेड़ (बाड़मेर) में भूरिया बाबा और खेड़िया बाबा रेबारियों के आराध्य देव है।
 

आलम जी का धोरा, गुढ़ामलानी (बाड़मेर) 

धोरी मन्ना पंचायत समिति मुख्यालय (बाड़मेर) की पहाड़ी पर आलम जी का मंदिर बना हुआ है। यह स्थल ‘घोड़ों के तीर्थ स्थल’ के उपनाम से भी प्रसिद्ध है। यहाँ माघ शुक्ल द्वितीय व भाद्रपद शुक्ल द्वितीय को मेला लगता है जिसमें अश्वपालक अच्छी नस्ल के घोड़े पैदा करने के लिए अपनी घोड़ियाँ लाते हैं।
 

मल्लीनाथ जी का मंदिर, तिलवाड़ा (बाड़मेर)  

लूणी नदी के किनारे तिलवाड़ा ग्राम (बाड़मेर) में राव मल्लीनाथ ने समाधि ली थी जहाँ इनका मंदिर बना हुआ है। चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक यहाँ राजस्थान का सबसे प्राचीन पशु मेला ‘मल्लीनाथ जी’ लगता हैं।
 

ब्रह्मा जी का दूसरा मंदिर, आसोतरा (बाड़मेर)

आसोतरा बाड़मेर में स्थित ब्रह्माजी के मंदिर का निर्माण खेतरामजी महाराज द्वारा 1984 में करवाया गया।
 

कपालेश्वर महादेव मंदिर, चौहटन (बाड़मेर)

 इसके पास बिशन पगलिया नामक पवित्र स्थल है, जहाँ भगवान विष्णु के चरण पूजे जाते हैं, तो वहीं माना जाता है कि पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास का अंतिम समय यहाँ बिताया था।
 
गरीबनाथ मंदिर, शिव (बाड़मेर) – इसका निर्माण विक्रम संवत् 900 ई. में जोशी कोमनाथ द्वारा करवाया गया था।
 

खाटू श्याम जी मंदिर (सीकर) 

सीकर जिले के खाटू गाँव में खाटू श्याम जी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यहाँ के एक शिलालेख के अनुसार 1720 ई. में अजमेर के राज राजेश्वर अजीतसिंह सिसोदिया के पुत्र अभयसिंह ने वर्तमान में खाटू श्याम मंदिर की नींव रखी। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला एकादशी और द्वादशी को विशाल मेला लगता है। महाभारत में बर्बरीक के मस्तिष्क को कलियुग में श्याम के रूप में पूजते हैं।
 
सप्त गौ माता मंदिर – रैवासा (सीकर) में स्थापित सप्त गौ माता का मंदिर राजस्थान का प्रथम मंदिर और भारत का चौथा गौ माता मंदिर माना जाता है।
 
हर्षनाथ मंदिर (सीकर) यह मंदिर सीकर से 14 किलोमीटर दूर 3000 हजार फुट ऊँची हर्षनाथ पहाड़ी पर महामारू शैली में निर्मित है। इस मंदिर का निर्माण 956 ई. में अजमेर के चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ के शासनकाल में हुआ।
 
हर्ष जीण माता का भाई था। 1679 ई. में औरंगजेब के सेनापति खानजहाँ बहादुर ने इस मंदिर को तुड़वा दिया लेकिन 18वीं सदी में सीकर के राव राजा शिवसिंह ने यहाँ पुनः मंदिर का निर्माण करवाया तो वहीं प्रतिवर्ष भाद्रपद त्रयोदशी को यहाँ विशाल मेला लगता है।
 

त्रिनेत्र गणेश मंदिर (सवाई माधोपुर) 

त्रिनेत्र गणेशजी का मंदिर रणथंभौर दुर्ग (सवाई माधोपुर) में स्थित है। यहाँ पर स्थित गणेश जी विश्व में एक मात्र त्रिनेत्र गणेश जी है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को यहाँ विशाल मेला लगता है। गणेश मंदिर के पीछे प्राचीन शिव मंदिर बना है जिसके सामने हम्मीर देव चौहान ने अपना सिर काटकर चढ़ाया था । 
 
 
ध्यातव्य रहे -भारत में सर्वाधिक कुमकुम पत्रियाँ (विवाह निमंत्रण पत्र) यहीं पर आते हैं।
 
 
घुश्मेश्वर महादेव, शिवाड़ (सवाई माधोपुर) – शिवाड़ गाँव (सवाई माधोपुर) में भगवान शिव का 12वाँ ज्योतिर्लिंग (देश में कुल बारह ज्योतिर्लिंग है।) स्थापित हैं। यह शिवाड़ प्राचीन काल में शिवालय के नाम से जाना जाता था। यहाँ महाशिवरात्रि को मेला लगता है। इस मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश निषेध है। यहाँ स्थित शिवलिंग पानी में डूबा रहता है।
 
काला जी – गोरा जी का मंदिर (सवाई माधोपुर) – इसमें भैरूजी की दो मूर्तियाँ है जिसमें एक काला व एक गोरा भैरू है। एक पहाड़ी पर बना यह मंदिर नौ मंजिला है। यहाँ तांत्रिकों की पीठ थी। यह मूर्ति लटकती सी प्रतीत होती है, इसी कारण इसे झूलता भैरूजी का मंदिर भी कहते हैं।

 

 

श्री गोविंद देव जी, जयपुर  

भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्रनाथ ने अपनी दादी के बताए अनुसार भगवान श्री कृष्ण के तीन विग्रहों का निर्माण करवाया था। इनमें से पहला विग्रह गोविंद देव जी (जयपुर) का, दूसरा विग्रह गोपीनाथ जी (जयपुर) का तथा – तीसरा विग्रह श्री मदन मोहन जी (करौली) का है।
 
पहले ये तीनों – विग्रह मथुरा में ही स्थापित थे लेकिन महमूद गजनवी के भारत आक्रमण के समय में विग्रह भूमि में दबा दिए गए। 1772 ई. में सवाई जयसिंह ने अपने आराध्य श्री गोविंद देव जी को अपने निवास चंद्रमहल (सिटी पैलेस) के निकट जयनिवास उद्यान में बने सूर्य महल में स्थापित किया। इसकी पूजा विधि अष्टयाम सेवा के नाम से प्रसिद्ध है।
 
ध्यातव्य रहे – जयपुर नरेश श्री गोविंद देव जी को जयपुर का वास्तविक शासक और स्वयं को उनका दीवान मानकर शासन करते थे।
 
श्री गोपीनाथ जी मंदिर (जयपुर) – श्री गोपीनाथ जी का विग्रह भी श्री गोविंद देव जी के साथ जयपुर आया था जिसे 1772 ई. में जलमहल के समीप ‘कनक वृंदावन’ में एक भव्य मंदिर में स्थापित कर दिया गया।
 
राजेश्वर शिवालय (जयपुर) – मोती डूंगरी (जयपुर) इसका निर्माण 1864 ई. में जयपुर नरेश रामसिंह द्वारा करवाया गया था। यह मंदिर जयपुर राजाओं का निजी मंदिर है और मंदिर जन साधारण के लिए वर्ष में केवल एक बार महाशिवरात्रि के दिन ही खुलता है।
 
मोती डूंगरी गणेश मंदिर (जयपुर) – इसकी स्थापना व मंदिर निर्माण 1761 ई. में माधोसिंह द्वारा करवाया गया। माना जाता है कि मूर्ति माधोसिंह की पत्नी अपने पीहर मावली से लायी थी।
 
बिड़ला मंदिर/लक्ष्मीनारायण मंदिर (जयपुर) – बिड़ला मंदिर का निर्माण गंगाप्रसाद बिड़ला ने हिंदुस्तान चैरिटी ट्रस्ट के माध्यम से करवाया। यह मंदिर एशिया का प्रथम वातानुकूलित मकराना के सफ़ेद संगमरमर से निर्मित है।
 
जगत शिरोमणी मंदिर या मीरां मंदिर (आमेर) जयपुर – इस मंदिर का निर्माण आमेर नरेश मानसिंह प्रथम की पत्नी कनकावती ने अपने पुत्र जगतसिंह की याद में करवाया था। इस मंदिर में स्थित भगवान कृष्ण की मूर्ति की पूजा मीरा बाई बचपन में करती थी जिस कारण इसे मीरा मंदिर भी कहते हैं। यह मूर्ति मानसिंह चित्तौड़ से लाये थे। इस मंदिर का निर्माण पंचायतन शैली में हुआ है।
 
गलता जी (जयपुर) – यहाँ पर प्राचीन समय में गालव ऋषि का आश्रम था। यह गालव ऋषि का आश्रम होने के कारण कलान्तर में गलता जी कहा जाने लगा। गलता जी में पूर्व मध्य काल में नाथ संप्रदाय की गद्दी थी, परंतु 1503 ई. में रामानुज संप्रदाय के कृष्णदास पयहारी ने आमेर नरेश पृथ्वीराज के गुरु तारानाथ जी को शास्त्रार्थ युद्ध में पराजित कर यहाँ रामानंदी संप्रदाय की स्थापना की।
 
मध्य काल में इसे ‘उत्तर भारत की तोतादि’ कहा जाता था। वर्तमान में इसे जयपुर का बनारस कहा जाता है, इसलिए जयपुर को ‘राजस्थान की दूसरी/छोटी काशी’ के उपनाम से भी जाना जाता है। बंदरों की अत्यधिक संख्या के कारण यह ‘मंकी वैली’ भी कहलाती है। गलता तीर्थ पर स्थित मंदिर सूर्य देवता को समर्पित है।
 
सूर्य मंदिर (आमेर, जयपुर) – आमेर का सबसे प्राचीन पूर्वाविमुख सूर्य मन्दिर का निर्माण आमेर के नागरिक चामुण्ड हरि के पुत्र ने करवाया था।
 
कल्याणरायजी का मंदिर, आमेर, जयपुर – आमेर नरेश भगवन्तदास ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
 
लक्ष्मीनारायण का मंदिर, आमेर (जयपुर) – आमेर नरेश पृथ्वीराज कछवाहा की पत्नी बालाबाई एक हरिभक्त थी। उन्होंने ही इस लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण (आमेर दुर्ग में) करवाया था।
 
अंबिकेश्वर महादेव मंदिर, आमेर (जयपुर) – अंबिकेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण कोकिलदेव ने 1037 ई. में आमेर विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। इसका जीर्णोद्धार मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया।
 
 
कल्कि मंदिर, जयपुर – जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने पौत्र सवाई ईश्वरी सिंह के पुत्र की याद में पुराणों के आधार पर जिस देवता का अवतार अभी तक नहीं हुआ उसके अनुमान से यह मंदिर बनवाया। इस कल्कि मंदिर का निर्माण दक्षिणायन शिखर शैली में सन् 1739 ई. में करवाया।
 
यह मंदिर मूलरूप से भगवान विष्णु को समर्पित है तथा विश्व का एकमात्र कल्कि भगवान का मंदिर है। इसमें कल्कि को घोड़े के साथ दिखाया गया है। माना जाता है कि यहाँ स्थित घोड़े की मूर्ति के पैर में गड्‌ढ़ा है जो धीरे-धीरे भर रहा है और जिस दिन यह गड्ढ़ा भर जायेगा उस दिन कलियुग का अंत हो जायेगा।
 
लाड़ली मंदिर (जयपुर) – 1823 ई. में निर्मित किशोरी रमण का मंदिर जिसे लाड़ली मंदिर कहा जाता है।
 
चरण मंदिर (जयपुर) – इसमें भगवान कृष्ण के चरण चिह्न रखे गये है। किवदंती है कि भगवान कृष्ण यहाँ गाय चराने आते थे।
 
द्वादश ज्योतिर्लिंगेश्वर महादेव मंदिर (आमेर) – मूलतः यह मंदिर जैन तीर्थंकर विमलनाथ को समर्पित था, जिसमें बाद में 12 शिवलिंग स्थापित कर दिये गये, तो वहीं इस मंदिर का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह के प्रधानमंत्री मोहनदास खण्डेलवाल ने करवाया, जिसे बाद में संघी झुंथाराम का मंदिर कहा जाने लगा।
 
नकटी माता मंदिर (भवानीपुरा, जयपुर) – 9वीं सदी में गुर्जर – प्रतिहार शैली में बना मंदिर जिसकी तुलना माण्डलगढ़ के जलेश्वर मंदिर से की जाती हैं, तो वहीं यहाँ स्थित मूर्ति टूटी अवस्था में है, जिस कारण इसे नकटी माता का मंदिर कहा जाता है।
 
नृसिंह मंदिर (आमेर) – पृथ्वीराज कच्छवाहा की रानी बालाबाई को कृष्णदास पयहारी ने नृसिंह जी की मूर्ति प्रदान की, जिसका मंदिर आमेर के कदमी महल में बनवाया गया।
 
वीर हनुमान मंदिर, सामोद (जयपुर) – यह मंदिर जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का मंदिर है।
 

चारभुजा नाथ मंदिर, गढ़बोर (राजसमंद)

श्री चारभुजा नाथ जी का मंदिर मेवाड़ के चार प्राचीन धामों (केसरिया जी, कैलाशपुरी, नाथद्वारा तथा चारभुजा नाथ जी) में गिना जाता है। यह चार भुजाओं वाली प्रतिमा पांडवों द्वारा भी पूजी गई थी। यहाँ पर वर्ष में दो बार होली व देव झूलनी एकादशी पर मेलों का आयोजन होता है। इसे मेवाड़ का वारीनाथ भी कहते हैं।
 

नाथद्वारा मंदिर (श्री नाथ जी) / सप्त ध्वजा का नाथ, राजसमंद

श्री नाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर बनास नदी के तट पर राजसमंद जिले में स्थित है। महाराणा राजसिंह ने इस मूर्ति को 1669 ई. में सिहाड़ नामक गाँव में स्थापित करवाया जो कालांतर में श्रीनाथ जी के नाम पर नाथद्वारा हो गया। इस मंदिर में दिन में सात बार आरती होती है-मंगला, ग्वाला, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती व शयन। श्रीनाथजी के मंदिर को ‘हवेली’ कहते हैं, तो यहाँ की गायकी ‘हवेली संगीत’ कहलाती है। यह मंदिर वल्लभ संप्रदाय की मुख्य गद्दी है। श्रीनाथ जी की मूर्ति के पीछे जो भगवान कृष्ण की लीलाओं के चित्र होते है, उन्हे पिछवाई कहा जाता है, तो वहीं विट्टलनाथ जी, नवनीत प्रियाजी, कल्याणरायजी, वनमाली लालजी, गोपाललालजी, मदनमोहनजी, यमुना निकुंज जी आदि वल्लभ सम्प्रदाय के यहाँ मंदिर स्थित हैं तथा जन्माष्टमी, फूलडोल तथा दीवाली का अन्नकूट नाथद्वारा का प्रसिद्ध है।
 
ध्यातव्य रहे :- नाथद्वारा में श्रीनाथ जी की मूर्ति 1669 ई. में औरंगजेब के समय वृंदावन के जतीपुरा से लाई गई थी।
 
द्वारिकाधीश मंदिर (राजसमंद)- यह मंदिर वल्लभ(पुष्टिमार्गी) संप्रदाय का मंदिर है। पहले यह विग्रह कांकरोली के निकट आसोटियां ग्राम में 1671 ई. में महाराणा राजसिंह द्वारा स्थापित किया गया, परंतु वर्तमान में यह मंदिर राजसमंद झील के तट पर स्थित है। इस मूर्ति को औरंगजेब के मंदिर तोड़ो अभियान (1669) के समय मथुरा से लाया गया था।
 
कुंतेश्वर महादेव मंदिर (फरारा, राजसमंद)- महाभारतकालीन इस मंदिर की स्थापना पाण्डवों की माता कुंती ने की थी।
 
 

झालरापाटन का सूर्य मंदिर (झालावाड़) 

झालरापाटन शहर के बीच 10वीं सदी में खजुराहो शैली में बने इस मंदिर को सात सहेलियों का मंदिर और पद्मनाथ मंदिर भी कहा जाता है। कर्नल टॉड ने इसे चारभुजा मंदिर कहा है। यहाँ स्थित मूर्ति में सूर्य भगवान को घुटनों तक जूते पहने हुये दिखाया गया है।
 
ध्यातव्य रहे- झालरापाटन में अत्यधिक मंदिर होने के कारण इसे घंटियों का शहर कहते हैं।
 

शीतलेश्वर महादेव मंदिर, झालरापाटन (झालावाड़ )

झालावाड़ जिले में चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित झालरापाटन का शीतलेश्वर मंदिर 689 ई. में दुर्गण के सामंत वाप्पक द्वारा महामारू शैली में निर्मित है। यह मंदिर राज्य में स्थित तिथि अंकित मंदिरों में सबसे अधिक प्राचीन है जिसमें अर्द्धनारीश्वर (आधा शरीर शिव का तथा आधा शरीर उमा का) प्रतिमा स्थापित है।
 

बाड़ौली का शिव मंदिर / घाटेश्वर महादेव (चित्तौड़गढ़)

बाड़ौली का प्रसिद्ध आठवीं शताब्दी में निर्मित शिव मंदिर चित्तौड़गढ़ जिले में भैंसरोड़गढ़ कस्बे के पास स्थित है। बाड़ौली में कुल नौ मंदिर है जो आठवीं से ग्यारवीं शताब्दीं के मध्य नागर शैली में बने हुए है। बाड़ौली के मंदिरों को सर्वप्रथम 1821 ई. में प्रकाश में लाने का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को जाता है। तोरमाण हूण के पुत्र मिहिरकुल को इसका निर्माता माना जाता है। यहाँ स्थित घाटेश्वर मंदिर में पंचरथ गर्भगृह हैं। यह मंदिर चंबल व वामनी नदी के किनारे है। ये मंदिर नागर व पंचायतन शैली का मिश्रण हैं।
 

मीरां बाई का मंदिर (चित्तौड़गढ़ दुर्ग)

इस मंदिर का निर्माण महाराणा सांगा ने अपनी पुत्रवधू मीरां की भक्ति के लिए महल के रूप में करवाया था। मंदिर के सामने मीरा के गुरु रैदास की छतरी स्थित है। यह मंदिर इण्डो-आर्य शैली का हैं।
 

समिद्धेश्वर महादेव मंदिर (चित्तौड़गढ़)

इस मंदिर का निर्माण मालवा के पराक्रमी परमार नरेश राजा भोज (1011-55 ई.) ने नागर शैली में करवाया था। महाराणा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था इसी कारण इस मंदिर को ‘मोकल जी का मंदिर’ भी कहा जाता है। इस मंदिर में जैन धर्म की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। यहाँ भगवान शिव की त्रिमुखी मूर्ति होने के कारण इस मंदिर को त्रिभुवन नारायण मंदिर भी कहा जाता है, तो वहीं 1150 ई. के कुमारपाल के शिलालेख से मंदिर निर्माण की जानकारी मिलती है।
 

सांवलिया सेठ का मंदिर (चित्तौड़गढ़)

श्री सांवलिया जी सेठ का मंदिर मंडफिया गाँव (चित्तौड़गढ़) में स्थित है जिसे ‘अफीम मंदिर’ के नाम से जानते हैं। इस मंदिर में श्री कृष्ण भगवान की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है। यहाँ जल झूलनी एकादशी को विशाल मेला भरता है।
 

कुंभ श्याम मंदिर (चित्तौड़गढ़ दुर्ग)

यह मंदिर मूल रूप से सूर्य मंदिर था। लेकिन मलेच्छों द्वारा मंदिर को नष्ट करने के कारण 1449 ई. में मेवाड़ के महाराणा कुंभा ने अपने इष्ट देव भगवान विष्णु के वराह अवतार की मूर्ति को स्थापित कराकर इसका जीर्णोद्धार करवाया, लेकिन कुंभा द्वारा अपने आराध्य की मूर्ति इसमें स्थापित करवाए जाने कारण यह मंदिर कुंभ श्याम मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।
 
कालिका माता का मंदिर, चित्तौड़गढ़-राजस्थान में सूर्य को
 
समर्पित प्राचीनतम मंदिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में है। इस मंदिर का निर्माण मौर्य वंशी राजा मान ने 713 ई. में करवाया था। मुगल आक्रमणों के कारण मंदिर को नष्ट करने के बाद महाराणा सज्जन सिंहजी ने इसके गर्भगृह में कालिका माता की मूर्ति स्थापित करवाई जो वर्तमान में अब कालिका माता के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
 

मंगलेश्वर महादेव मंदिर-मातृकुंडिया, चित्तौड़गढ़ 

मातृकुंडिया (राशमी पंचायत समिति) चित्तौड़गढ़ में चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित मातृकुंडिया तीर्थ स्थल ‘राजस्थान का हरिद्वार मेवाड़ का प्रयाग’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि यहाँ पर स्थित कुंड के पवित्र जल में मृत व्यक्ति की अस्थियाँ विसर्जित की जाती है तथा हरिद्वार की तरह यहाँ पर भी ‘लक्ष्मण झूला’ लगा हुआ है।
 
तुलजा भवानी मंदिर (चित्तौड़गढ़)- यह मंदिर चित्तौड़गढ़
 
दुर्ग के रामपोल के पास है, जिसका निर्माण पृथ्वीराज सिसोदिया के दासी पुत्र बनवीर ने तुलादान से करवाया था। तुलजा भवानी शिवाजी की कुलदेवी है।
 
अन्नपूर्णा माता मंदिर – चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित इस मंदिर में
 
– स्थित भगवान शिव की मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि यह मूर्ति पाण्डव अपनी बाजू पर बाँधे रखते थे।
 
– ये भी जानें-
 
> सिसोदिया राजवंश की कुलदेवी बाणमाता का मंदिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में है।
 
> अद्भुतनाथ मंदिर (चित्तौड़गढ़) का निर्माण 15वीं सदी में भूमिज शैली में हुआ।
 
> नगरी (चित्तौड़गढ़) से मौर्यकालीन एक बिना छत का मंदिर प्राप्त हुआ है।
 
 
 

श्री मदनमोहन जी मंदिर (करौली)

यह मंदिर माधीय गौड़ीय संप्रदाय से संबंधित है। करौली के राजा गोपालसिंह जी 1728 ई. में मदन मोहन के विग्रह को जयपुर से गुसाई सुबलदास जी के माध्यम से करौली ले आये और 1748 ई. में उन्होंने वर्तमान मंदिर बनवाया।
 
 

ब्रह्मा मंदिर, पुष्कर (अजमेर)

ब्रह्मा जी का सबसे अधिक प्राचीन मंदिर पुष्कर (अजमेर) में स्थित है। जहाँ पर विधिवत रूप से – पूजा की जाती है। इस मंदिर का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा 14वीं सदी में करवाया गया तथा इस मंदिर को वर्तमान स्वरूप 1809 ई. में गोकुल चंद पारीक ने दिया। इस मंदिर में ब्रह्मा जी की आदमकद की चतुर्मुखी मूर्ति प्रतिष्ठित है। साथ ही मंदिर के परिसर में पंचमुखी महादेव, लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, पातालेश्वर महादेव, नारद और नवग्रह के छोटे-छोटे मंदिर बने हुये हैं। ब्रह्मा मंदिर होने के कारण पुष्कर ब्रह्मा नगरी भी कहलाता है।
 

सोनी जी की नसियां

यह तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का मंदिर है, जिसका निर्माण स्व. सेठ मूलचंद सोनी ने प्रारम्भ करवाया तथा इनके पुत्र टीकमचंद सोनी ने इसे 1865 में पूर्ण करवाया। इसे सिंहकूट चैत्यालय व लाल मंदिर भी कहा जाता है। यहाँ एक दिगम्बर जैन मंदिर भी स्थित है।
 

सावित्री मंदिर, पुष्कर (अजमेर)

पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर के पीछे रत्नागिरि पर्वत पर ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री जी का मंदिर है। इसी मंदिर में 3 मई, 2016 को तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 700 मीटर लम्बे रोप वे का उद्घाटन किया जो राजस्थान का तीसरा रोप-वे है। ध्यान रहे- राजस्थान का प्रथम रोप-वे सुण्डा माता मंदिर (जालौर) तथा दूसरा रोप-वे करणी माता मंदिर (उदयपुर) में स्थित है। माना जाता है कि यज्ञ के समय सावित्री माता अपने पति ब्रह्मा से रूठकर यहां चली आयी थी और यहीं पर उन्होंने ब्रह्माजी को श्राप दिया था कि उनकी पूजा पुष्कर के अलावा कहीं नहीं होगी। सावित्री मंदिर का निर्माण गोकुलचन्द पारीक ने करवाया था। यहाँ सावित्री जी की पुत्री सरस्वती जी की भी मूर्ति स्थापित है। सावित्री जी का मेला भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को भरता है।
 

वराह मंदिर (पुष्कर, अजमेर)

12वीं सदी में मंदिर का निर्माण पृथ्वीराज चौहान के पितामह अर्णोराज ने करवाया था। मुगल शासक औरंगजेब द्वारा तोड़े जाने के बाद दूसरा वर्तमान निर्माण सवाई जयसिंह द्वारा तथा जीर्णोद्धार राणा प्रताप के भाई सागर द्वारा करवाया गया।
 
रंगनाथ जी (पुष्कर, अजमेर)-वैष्णव संप्रदाय की रामानुज शाखा के रंगनाथ जी का मंदिर दिव्य तथा आकर्षक है जिसका निर्माण 1844 ई. में सेठ पूरणमल द्वारा करवाया गया। यह मंदिर भगवान विष्णु और लक्ष्मी (सिंह पर सवार) तथा नृसिंह जी की मूर्तियों से मंडित है। यह मंदिर अपनी गोपुरम आकृति के लिए प्रसिद्ध है।
 
महादेव जी का मंदिर, पुष्कर (अजमेर) – इस शिव मंदिर का निर्माण ग्वालियर के अन्नाजी सिंधिया द्वारा पुष्कर में करवाया गया।
 
रमाबैकुंठ जी का मंदिर, पुष्कर (अजमेर)- यह मंदिर वैष्णव संप्रदाय की रामानुजाचार्य शाखा से संबंधित है। इसका निर्माण 1820 ई. में डीडवाना (नागौर) के सेठ मगनीराम द्वारा करवाया गया था।
 
काचरिया मंदिर, किशनगढ़ (अजमेर) – किशनगढ़ में स्थित इस मंदिर में कृष्ण एवं राधा की मूर्ति स्थित है जिसकी पूजा निंबार्क संप्रदाय के अनुसार की जाती है।
 
ध्यातव्य रहे :- प्राचीन राजस्थान की मूर्तिकला का प्रतीक ‘नाद की शिव प्रतिमा’ अजमेर जिले से प्राप्त हुई है।
 
आनन्दी माता मंदिर (नोसल, किशनगढ़) 9वीं सदी में बना सूर्य मंदिर जिसे बाद में आनन्दी माता का मंदिर कर दिया गया। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना हुआ है।
 
रामदेवजी मंदिर (खुण्डियास, अजमेर)- बाबा रामदेवजी का
 
यह मंदिर मिनी रामदेवरा/राजस्थान का द्वितीय रामदेवरा नाम से प्रसिद्ध है।
 
 

भंडदेवरा शिव मंदिर (बारां ) / हाड़ौती का खुजराहो

10वीं शताब्दी में इसका निर्माण मेदवंशीय राजा मलय वर्मा द्वारा करवाया गया था। देवालय में उत्कीर्ण मूर्तियाँ कला की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिनमें मिथुन मुद्रा में अनेक आकृतियाँ अंकित की गई है, जिससे यह ‘राजस्थान का मिनी खजुराहो’ भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण भूमिज शैली में हुआ है, तो वहीं मंदिर का जीर्णोद्धार 1162 ई. में त्रिशवर्मा ने करवाया।
 
काकूनी धाम, बारां- यह स्थान परवन नदी के किनारे पहाड़ी पर स्थित है, यहाँ प्राचीनकाल में 108 मंदिरों की श्रृंखला हुआ करती थी।
 
ब्राह्मणी माता का मंदिर (बाराँ) सौरसेन (बाराँ) में ब्रह्माणी माता का मंदिर स्थित है जो भारत में एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें देवी की मूर्ति के आगे की पूजा न करके उसके पीठ की पूजा की जाती है। यहाँ ब्राह्मणी माता की मूर्ति चट्टान को काटकर बनायी गई है, तो वहीं माघ शुक्ल सप्तमी को यहाँ गधों का मेला भरता है।
 
फूलदेवरा का शिवालय (बाराँ)- अटरू (बारां) में स्थित शिवालय के निर्माण में चूने का प्रयोग नहीं किया गया। इस मंदिर को मामा-भांजा का मंदिर भी कहते हैं।
 
गडगच्च देवालय, अटरू (बारा)-अटरू (बारां) में बने 10वीं शताब्दी के शिव मंदिर को औरंगजेब ने तोपों से तुड़वा दिया था। इसी कारण इस मंदिर को गडगच्च देवालय कहते हैं।
 
कल्याणजी का मंदिर (बाराँ) – राजमाता राजकुंवर बाई द्वारा 1537 ई. में निर्मित। माना जाता है कि कल्याणजी की मूर्ति रणथम्भौर दुर्ग से लायी गई थी।
 
ध्यातव्य रहे- बाराँ स्थित सीताबाड़ी सहरिया जनजाति का मुख्य आस्था स्थल है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम के द्वारा जब सीता माता का परित्याग किया गया था तब सीता माता यहीं पर वाल्मिकी के आश्रम में रही थीं तथा यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था व यहाँ पर लव-कुश नामक दो झरने है।
 
तेली का मंदिर (श्रीनालगाँव, बारां)- यह विष्णु मंदिर है।
 
प्यारे रामजी का मंदिर (बारां) यह मंदिर रामानन्दी सम्प्रदाय की गूदड़ पंथ की पीठ है, तो वहीं प्यारेरामजी रामानन्दी संप्रदाय के कुलगुरू स्वामी श्रीरामजी के शिष्य थे।
 
 
 

सालासर हनुमान मंदिर, सुजानगढ़, चुरू

 
यहाँ स्थित हनुमान मूर्ति में केवल शीश की ही पूजा की जाती है। सालासर हनुमान् का विग्रह स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान है जिनकी मुखाकृति पर दाढ़ी-मूँछ है।
 
ध्यातव्य रहे-सालासर बालाजी के मंदिर का आरंभिक निर्माण कार्य दो मुस्लिम कारीगरों नूरा और दाऊद ने किया, तो वहीं माना जाता हैं कि हनुमानजी की यह मूर्ति जमीन से प्रकट हुई थी तथा इसे सिद्ध पीठ हनुमान मंदिर कहा जाता है। 1757 ई. में आसोटा गाँव (चुरू) में मोहनदास किसान को खेत में हल जोतते समय यह मूर्ति मिली जिसे सालासर नामक स्थान पर स्थापित कर मंदिर बनवाया गया। यहीं मोहनदासजी ने 1803 ई. में जीवित समाधि ली थी। हनुमान जयंती (चैत्र पूर्णिमा) को यहाँ विशाल मेला भता है।
 
तिरूपति बालाजी मंदिर- यह चूरू जिले के सुजानगढ़ में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण मोहनलाल जानोदिया द्वारा सन् 1994 में डॉ. एम. नागराज व डॉ. वैंकटाचार्य की देखरेख में करवाया गया था, तो वहीं यह मंदिर दक्षिण भारत की स्थापत्य शैली पर निर्मित है तथा इसे वेंकटेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। यहाँ मंदिर में तिरूपति तिरूमल्ला देवस्थानम् आंध्रप्रदेश द्वारा प्रदान की गई पाषाण एवं लौह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गई है। मंदिर में भंगवान विष्णु के दस अवतारों के भित्तिचित्र हैं।
 
गोगाजी का मंदिर, ददरेवा (चुरू)- ददरेवा (चुरू) में गोगाजी का शीश आकर गिरा था इसी कारण इसे शीशमेढ़ी भी कहते हैं। गोगाजी की याद में यहाँ पर मंदिर बनाया गया, जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्ण नवमी (गोगानवमी) को मेला भरता है।
 
 
 
 
भर्तृहरि मंदिर, सरिस्का, अलवर-उज्जैन के राजा और महान् योगी भृर्तहरि ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में सरिस्का (अलवर) को ही अपनी तपोस्थली बनाया था और यहीं समाधि ली थी। इसे ‘कनफटे साधुओं का कुंभ’ भी कहते हैं, तो वहीं यहाँ भाद्रपद व वैशाख माह में मेला भरता है।
 
पांडुपोल हनुमानजी का मंदिर (अलवर) भर्तृहरि (अलवर)
 
से कुछ दूरी पर पांडुपोल में लेटे हुए हनुमानजी का मंदिर (शयन मुद्रा में) स्थित है। ऐसा माना जाता है कि पाण्डवों के अज्ञातवास के समय हनुमानजी ने यहाँ महाबली भीम का घमण्ड तोड़ा था, तो वहीं भाद्रपद माह में यहाँ मेला भरता है।
 
नीलकंठ महादेव (टहला, राजगढ़)- अलवर जिले के दर्शनीय स्थलों में नीलकंठ महादेवजी का मंदिर भी प्रसिद्ध है, जिसमें नृत्य करते हुए गणेश जी की मूर्ति है। गुर्जर प्रतिहार शैली में इस मंदिर का निर्माण 953 ई. में अजयपाल बड़गुर्जर द्वारा करवाया गया था।
 
सोमनाथ मंदिर, भानगढ़ (अलवर) यहाँ पर स्थित सोमनाथ
 
मंदिर गुजरात के सोमनाथ मंदिर की प्रतिकृति है जो केवल संपूर्ण राज्य में यहीं भानगढ़ में अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1631 ई. में आमेर के राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह ने करवाया था।
 
बूढ़े जगन्नाथजी का मंदिर, अलवर-यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण हिंदुओं के चार धामों में से एक ओड़िशा के जगन्नाथपुरी की तरह की रथयात्रा है जो प्रतिवर्ष बढ़लिया नवमी को शुरू होती है।
 
बाँसवाड़ा जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-03)
 
घोटिया अंबा, बाँसवाड़ा-यहीं पर महाभारत के अनुसार, पांडवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से 88 हजार ऋषियों को भोजन कराया था। घोटिया अंबा स्थल पर प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला लगता है। यहाँ इन्द्र द्वारा प्रदान किया गया आम का पेड़ लगा है, जिसके दर्शन शुभ माने जाते हैं।
 
तलवाड़ा का प्राचीन सूर्य मंदिर (बांसवाड़ा)-तलवाड़ा (बांसवाड़ा) में 11वीं शताब्दी के आसपास का बना हुआ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सूर्य मंदिर है, जिसमें सूर्य की मूर्ति एक कोने में रखी हुई है। बाहर के चबूतरे पर सूर्य के रथ का चक्र टूटा पड़ा है। उसके निकट श्वेत पत्थर की बनी हुई नवग्रहों की मूर्तियाँ हैं। सूर्य मंदिर के पास ही 12वीं शताब्दी के आस-पास का बना हुआ लक्ष्मीनारायण का मंदिर है, जिसके नीचे का हिस्सा प्राचीन व ऊपर का भाग नया है।
 
मंडलेश्वर शिव मंदिर, अर्थना (बांसवाड़ा)- बांसवाड़ा के अर्थूना (ग्रंथों में इसका नाम ‘उत्थूनक’) गांव में लकुलीश सम्प्रदाय का परमार कालीन शिव मंदिर स्थित है।
 
 
त्रिपुरा सुंदरी मंदिर (बाँसवाड़ा) – तलवाड़ा (बाँसवाड़ा) के समीप । पाँचाल जाति की कुल देवी त्रिपुरा सुंदरी का भव्य मंदिर स्थित है। जिसकी पीठिका के मध्य में ‘श्रीयंत्र’ अंकित है। त्रिपुरा सुंदरी को ही हम ‘तुरताई माता/महालक्ष्मी’ के नाम से भी जानते हैं। यह वसुंधरा राजे की आराध्य देवी है।
 
ब्रह्मा मंदिर (छींछ, बाँसवाड़ा)- इसका निर्माण जगमाल – सिसोदिया ने 12वीं सदी में करवाया, तो वहीं यहाँ नवग्रहों का मंदिर तथा ब्रह्मा घाट स्थित है। इसका पुनः निर्माण 1495 ई. में देवदत्त ने करवाया।
 
भीलवाड़ा जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-06)
 
सवाई भोज मंदिर, आसीन्द, भीलवाड़ा-खारी नदी के पास बना, यह मंदिर गुर्जर समुदाय का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को पशु मेला लगता है। यह मंदिर 24 बगड़ावत भाईयों में से एक भाई सवाई भोज का है।
 
कुशाल माता (बदनौर) – इसका निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा करवाया गया।
 
तिलस्वां महादेव मंदिर (भीलवाड़ा)- इस मंदिर की विशेषता
 
यह है कि कुष्ठ पीड़ित व चर्मरोग से पीड़ित व्यक्ति यहाँ स्वास्थ्य लाभ के लिए अधिक मात्रा में आते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष शिवरात्रि को मेला लगता है।
 
 
हरणी महादेव मंदिर (भीलवाड़ा)- यहाँ पहाड़ियों के बीच स्थित इस स्थान पर सन् 1835 का ताम्रपत्र मिला है। इस मंदिर का निर्माण 1964 ई. में स्वामी प्रत्यक्षानंद महाराज के सान्निध्य में दरक परिवार के द्वारा करवाया गया था, तो वहीं माना जाता है कि दरक परिवार को मूर्ति स्वप्न में दिखी थी। शिवरात्रि को यहाँ मेला भरता है।
 
बाईसा महारानी मंदिर (भीलवाड़ा)- भीलवाड़ा जिले के गंगापुर
 
कस्बे में ग्वालियर के महाराजा महादजी सिंधिया की महारानी गंगाबाई का प्रसिद्ध मंदिर हैं। महारानी गंगाबाई की उदयपुर से लौटते समय 11 अगस्त, 1971 को इस स्थान पर मृत्यु हो गई थी। उनकी स्मृति में यहाँ मंदिर बनवाया गया। जिसे ‘बाईसा महारानी /गंगाबाई का मंदिर’ कहते हैं। इस मंदिर में गंगारानी की ही मूर्ति स्थापित है।
 
रामद्वारा, शाहपुरा (भीलवाड़ा)- यहाँ रामस्नेही सम्प्रदाय का
 
मुख्य पूजा स्थल है। 1751 ई. में रामचरण जी ने इस सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकम् को मेला भरता है।
 
उण्डेश्वर मंदिर, बिजौलिया (भीलवाड़ा)- यह विष्णु मंदिर है, जिसका निर्माण 1125 ई. में हुआ।
 
डूंगरपुर जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-12)
 
बेणेश्वर महादेव धाम, डूंगरपुर-बेणेश्वर महादेव मंदिर नवाटापुरा गाँव (डूंगरपुर) से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर सोम, माही तथा जाखम तीनों नदियों के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की विशेषता यह है, कि यह स्वयं भू शिवलिंग है जो खंडित अवस्था में है और यहाँ खंडित शिवलिंग की ही पूजा होती है। शिवलिंग पर अफीम चढ़ाई जाती है। बेणेश्वर धाम की स्थापना 1727 ई. में संत मावजी ने की थी। यहाँ प्रतिवर्ष माघ शुक्ला एकादशी से माघ शुक्ला पूर्णिमा तक विशाल मेले का आयोजन होता है। यह मेला भील जनजाति का मेला है। इस मेले को भीलों का कुंभ, आदिवासियों का कुंभ, वागड़ का कुंभ, वागड़ का पुष्कर आदि नामों से जाना जाता है। इसी त्रिवेणी संगम पर आदिवासी अपने पूर्वजों की अस्थियों को प्रवाहित करते है।
 
देव सोमनाथ (डूंगरपुर)-14वीं सदी में पंचायतन शैली में सफ़ेद पत्थर से बने इस मंदिर में भव्य कंगूरे और बहुत से प्राचीन शिलालेख हैं। इस मंदिर में चूना व सीमेंट का प्रयोग नहीं हुआ है, तो वहीं यह मंदिर तीन मंजिला है, जिसे वागड़ का वैभव कहते है।
 
गवरी बाई का मंदिर-डूंगरपुर में स्थित गवरी बाई के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण शिवसिंह ने करवाया। इसी गवरी बाई को हम ‘वागड़ की मीरां’ के नाम से जानते हैं।
 
ध्यातव्य रहे-डूंगरपुर में फतेहगढ़ी नामक स्थान के सनसेट प्वाइंट पर विवेकानंद व महाराजा बलि की मूर्तियाँ स्थापित हैं।
 
श्रीनाथ मंदिर – इसका निर्माण महारावल पुंजराज ने करवाया, जिसमें राधा-कृष्ण की मूर्ति स्थापित है।
 
शिव ज्ञानेश्वर शिवालय (डूंगरपुर) महारावल शिवसिंह ने गैप सागर झील के किनारे अपनी माता ज्ञान कंवर की याद में इस शिवालय का निर्माण करवाया था।
 
हरि मंदिर, साबला (डूंगरपुर) – निष्कलंक सम्प्रदाय के संस्थापक संत मावजी को समर्पित इस मंदिर में भगवान कृष्ण की मूर्ति है।
 
विजयराज राजेश्वर मंदिर (डूंगरपुर) – इसका निर्माण 1882 ई. में डूंगरपुर महाराजा उदयसिंह द्वितीय की रानी उम्मेद कंवर ने शुरू करवाया जिसे पूर्ण विजयराज के पुत्र लक्ष्मण सिंह ने 1923 ई. में करवाया।
 
फूलेश्वर शिवालय – 1780 ई. में इसका निर्माण महारावल शिवसिंह की रानी फूल कंवर ने करवाया।
 
दौसा जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-29)
 
मेंहदीपुर बालाजी मंदिर (दौसा) दौसा व करौली जिले की
 
सीमा पर स्थित मेंहदीपुर बालाजी के मंदिर के गर्भगृह में स्थित मूर्ति किसी कलाकार द्वारा गढ़कर नहीं लगाई गयी है, बल्कि यह मूर्ति पर्वत का ही एक अंग है। यहाँ प्रेतराज सरकार व भैरवजी के मंदिर भी स्थित हैं। यहाँ पर भूत-प्रेत की बाधाएँ, मिरगी, लकवे, पागलपन आदि रोग श्रीबालाजी महाराज की कृपा से दूर हो जाते हैं। यहाँ दशहरा पर्व पर, दोनों नवरात्रों में एवं हनुमान जयन्ती पर मेला लगता है।
 
आभानेरी (दौसा)-पंचायतन शैली में बने हर्षत माता के मंदिर
 
के लिए आभानेरी (दौसा) प्रसिद्ध है। परंतु यह मूलतः विष्णु भगवान का मंदिर है जिसमें चतुर्यूह विष्णु भगवान की मूर्ति एवं कृष्ण-रुकमणि के पुत्र प्रद्युम्न की मूर्ति स्थापित है। यह मंदिर 8वीं सदी का है, जिसे 11वीं सदी में महमूद गजनवी ने नष्ट कर दिया था।
 
झांझेश्वर महादेव मंदिर (दौसा) – यहाँ श्रावण मास में मेला भरता है तथा यहाँ स्थित गौमुख से सर्दियों में गर्म व गर्मियों में ठण्डा पानी बहता है।
 
 
झुंझुनूं जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-18)
 
 
लोहार्गल, झुंझुनूँ-झुंझुनूं जिले में लोहार्गल नामक पवित्र स्थान पर मालकेतु पर्वत की घाटी में स्थित इस तीर्थ की चौबीस कौस की परिक्रमा भाद्रपद माह में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से अमावस्या तक हर वर्ष होती है। अमावस्या के दिन सूर्य कुंड में पवित्र स्नान के साथ-साथ यह परिक्रमा विधिवत् समाप्त होती है। यह परिक्रमा मालखेत जी की परिक्रमा भी कहलाती है।
 
 
रघुनाथजी का मंदिर (झुंझुनूँ)- यह मंदिर खेतड़ी का सबसे
 
विशाल एवं प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण राजा बख्तावर की पत्नी चूंडावती ने लगभग 150 वर्ष पूर्व करवाया था। इस मंदिर के गर्भगृह में स्थापित श्रीराम व लक्ष्मण की प्रतिमा मूँछों वाली है।
 
राणी सती (झुंझुनूं)- यह राजस्थान का सती माता का सबसे बड़ा मंदिर है, जहाँ भाद्रपद अमावस्या को विशाल मेला लगता है।
 
जालौर जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-16)
 
सिरे मंदिर (जालौर) – जालौर दुर्ग की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित सिरे मंदिर नाथ संप्रदाय के प्रसिद्ध ऋषि जालंधर नाथ की तपोभूमि है, जहाँ मंदिर का निर्माण मारवाड़ रियासत के शासक राजा मानसिंह राठौड़ ने करवाया था। अपनी विपत्ति के दिनों में उन्होंने यहाँ शरण ली थी। नाथ संप्रदाय के ऋषि जालंधर नाथ की तपोस्थली होने के कारण जालौर ‘राजस्थान का जालंधर’ भी कहलाता है।
 
आशापुरा माता (मोदरा) – सोनगरा चौहानों की कुल देवी, जिनके मंदिर में वि.सं. 1532 का एक शिलालेख लगा हुआ है।
 
आपेश्वर महादेव मंदिर (रामसीन, जालौर)- यहाँ स्थित मूर्ति
 
में भगवान शिव समाधिस्थ मुद्रा में है, तो वहीं त्रेता युग में भगवान राम ने अपने वनवास के दौरान यहाँ रात्रि विश्राम किया था। इसका निर्माण 13वीं सदी में हुआ था।
 
सुंधा माता (जसवंतपुरा) – सुंधा पर्वत पर स्थित इस मंदिर में
 
दिसम्बर, 2006 में राजस्थान का प्रथम रोपवे स्थापित किया गया था।
 
वराह मंदिर (भीनमाल, जालौर)- यहाँ 7 फीट ऊँची वराह
 
की मूर्ति है, जिसे वराह श्याम भी कहते हैं।
 
नीलकण्ठ महादेव (जालौर) – माना जाता है कि इस मंदिर
 
का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने मस्जिदनुमा करवाया था, तो वहीं मंदिर में स्थित शिवलिंग आधा पीला व आधा काला है।
 
जोधपुर जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-19)
 
महामंदिर (जोधपुर) – महामंदिर जोधपुर नाथ संप्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल एवं प्रमुख गद्दी है। यह भव्य मंदिर 84 खंभों पर निर्मित है जिसके अंदर जालंधर नाथ की प्रतिमा स्थापित है। इसका निर्माण जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह ने अपने गुरु आयस देव नाथ के कहने पर करवाया था।
 
रावण मंदिर (जोधपुर) – जोधपुर में उत्तरी भारत का पहला रावण मंदिर है। माना जाता है कि रावण का विवाह मण्डौर की मंदोदरी ओझा के साथ हुआ था, इसलिए उसकी याद में इस मंदिर का निर्माण करवाया गया। यह मूर्ति चुन्नीलाल द्वारा बनायी गई थी।
 
अधर शिला रामदेवजी का मंदिर (जोधपुर)- जालौरिया का वास (जोधपुर) में स्थित अधर शिला रामदेव मंदिर में बाबा रामदेव के पगल्ये पूजे जाते हैं। इस मंदिर की यह विशेषता है, कि इस मंदिर का स्तंभ जमीन से आधा इंच ऊपर ऊठा हुआ है, जिससे यह प्रतीत होता है कि यह मंदिर झूल रहा हो।
 
33 करोड़ देवी-देवताओं के मंदिर (जोधपुर)- मंडौर (जोधपुर) में 33 करोड़ देवी-देवताओं का मंदिर/गद्दी/साल स्थित है। इस मंदिर को ‘Hall of Heroes’ और ‘वीरों की साल’ के नाम से भी जानते हैं।
 
पीपड़ला माता का मंदिर (औसियाँ) – यह मंदिर अलंकृत पीठिका पर बना है।
 
हरिहर मंदिर (औसियाँ) – यहाँ कुल 3 मंदिर है, जिनमें 2 पंचायतन शैली के तथा 1 एकायतन शैली का है। इनका निर्माण खजुराहो व ओड़िशा के परशुरामेश्वर मंदिरों जैसा हुआ है।
 
सच्चिया माता (औसियाँ) – इसका निर्माण 12 वीं सदी में पंचायतन शैली में हुआ था। यह ओसवालों की कुलदेवी है।
 
 
सूर्य मंदिर (औसियाँ)- इसका निर्माण 10वीं सदी में हुआ,
 
जहाँ 10 भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति है तथा यह मंदिर पंचायतन शैली में बना हुआ है। इस शिव मंदिर को राजस्थान का ब्लैक पैगोड़ा व राजस्थान का कोणार्क कहा जाता है।
 
महावरी मंदिर (औसियाँ)- इसका निर्माण 8 वीं सदी में प्रतिहार शासक वत्सराज ने करवाया।
 
ज्वालामुखी मंदिर (जोधपुर) – पचेरिया/चिड़ियाट्रॅक पहाड़ी
 
पर निर्मित्त, जिसमें महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति है।
 
तीजा मांगी मंदिर (जोधपुर)- जोधपुर नरेश मानसिंह की रानी प्रताप कुँवरी द्वारा निर्मित्त ।
 
कुंजबिहारी मंदिर (जोधपुर) – इसका निर्माण विजयसिंह की
 
पासवान रानी गुलाब कंवर ने 1779 ई. में करवाया।
 
अचलनाथ महादेव मंदिर (जोधपुर)- इसका निर्माण 1531 ई. में राव गांगा की रानी नानकदेवी द्वारा करवाया गया।
 
गंगश्याम मंदिर (जोधपुर)- इसका निर्माण राव गांगा ने अपनी
 
पत्नी प‌द्मावती के कहने पर करवाया। यह भगवान कृष्ण का मंदिर है जिसमें स्थित मूर्ति राव गांगा ने प‌द्मावती के पिता जगमाल से दहेज में प्राप्त की थी। 
 
 
नागौर जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-21)
 
चारभुजा मंदिर, मेड़ता सिटी (नागौर) – भक्त शिरोमणि मीरां बाई का विशाल मंदिर मेड़ता सिटी (नागौर) में स्थित है। इस मन्दिर को चारभुजा नाथ मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है, जिसका निर्माण मीरां बाई के पितामह (दादाजी) राव दूदा द्वारा करवाया गया था।
 
बंशीवाले का मंदिर (नागौर) – इसका निर्माण राणा श्रीसगर ने करवाया, तो वहीं महान इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे मुरलीधर का मंदिर कहा है।
 
गुसांई मंदिर (जुंजाला, नागौर) माना जाता है कि भगवान विष्णु ने जब वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन कदम जमीन मांगी थी तब तीसरा पैर जहाँ रखा गया, वहाँ गुसांई मंदिर है। मान्यता है कि रामदेवजी की यात्रा तभी पूरी मानी जायेगी जब भक्त रामदेवरा जाकर जुजाला में गुसांई जी के दर्शन करता है।
 
चतुरदास जी का मंदिर (बुटाटी, नागौर)- यहाँ लकवे का ईलाज होता है।
 
टोंक जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-26)
 
कल्याणजी का मंदिर, डिग्गी, मालपुरा, टोंक-डिग्गी के कल्याणजी का मंदिर डिग्गी (मालपुरा-टोंक) में स्थित है। मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के शासनकाल में निर्मित इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की चतुर्मुखी प्रतिमा स्थित है। मुस्लिम इन्हें ‘कलहण पीर’ के नाम से पूजते हैं। जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर से प्रतिवर्ष लक्खी पदयात्रा डिग्गी कल्याणजी के जाती है। कल्याणजी के मंदिर का निर्माण राजा दिग्व ने कराया था। 
 
ध्यातव्य रहे-इसी लोकतीर्थ में स्थित लक्ष्मीनाथजी के मन्दिर में लगे शिलालेख से सिद्ध होता है कि मेवाड़ के महाराणा सांगा की मृत्यु 30 जनवरी, 1528 को कालपी में हुई थी और उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्रों द्वारा उनकी आत्मा की शान्ति के लिए यहाँ दान पुण्य किये गये थे।
 
Very Most-कल्याणजी का एक मंदिर जयपुर में भी बना हुआ है। मांडव ऋषि की तपोस्थली मांडकलां के सोलह प्राचीन मंदिर टोंक जिले में स्थित है। गुर्जरों के आराध्य देव देवनारायणजी का मंदिर जोधपुरिया (टोंक) में स्थित है, तो वहीं इस स्थल को देवधाम भी कहा जाता है।
 
बूंदी जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-08)
 
कंवलेश्वर/कपालीश्वर महादेव मंदिर, बूँदी-कंवलेश्वर (कपालीश्वर) महादेव का मध्यकालीन मंदिर इंदरगढ़ (बूँदी) में चाखण नदी के तट पर स्थित है। इसका निर्माण हम्मीर के पिता जैत्रसिंह ने करवाया, तो वहीं नागर शैली में निर्मित्त इस मंदिर के चारों ओर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं।
 
ध्यातव्य रहे-शैव संप्रदाय के आचार्य मत्स्येंद्र नाथ की राज्य में एकमात्र प्रतिमा इंद्रगढ़ (बूँदी) में चाखण नदी के तट पर कंवलेश्वर से मिली है।
 
केशवराय महादेव मंदिर, केशवरायपाटन (बूँदी)-केशवराय पाटन (बूँदी) में चंबल नदी के किनारे परशुराम जी ने शिव मंदिर का निर्माण करवाया, जिसका जीर्णोद्धार 18वीं सदी में राव छत्रसाल ने करवाया। 
 
सिरोही जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-24)
 
अचलेश्वर महादेव मंदिर, सिरोही-इस मंदिर में शिवलिंग न होकर एक गड्डा है, जिसे ‘ब्रह्मखड्ढ’ कहा जाता है। इस स्थान पर भगवान शिव के पैर का अंगूठा प्रतीकात्मक रूप में विद्यमान हैं। माना जाता है कि जब महमूद बेगड़ा ने मंदिर पर आक्रमण किया तब मधुमक्खियों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया, उस स्थान को भंवराथल कहते हैं। मंदिर में भगवान शिव के वाहन नंदी व पार्वती माता की खण्डित प्रतिमा है, जिसे महमूद ब्रेगड़ा ने खंडित किया था।
 
ध्यातव्य रहे- सूर्य मंदिर (बरसान, सिरोही) निर्माण सातवीं सदी में किया गया था, तो वहीं वशिष्ठ मंदिर (बसंतगढ़, सिरोही) में अग्निकुण्ड से उत्पन्न राजपूतों के अवशेष हैं।
 
सारणेश्वर मंदिर (सिरोही)-सिरोही में स्थित सारणेश्वर महादेव के मंदिर का निर्माण महाराव दुर्जनशाल ने 15वीं सदी में करवाया। ये देवड़ा चौहानों के कुल देवता हैं।
 
कुँवारी कन्या का मंदिर-यह मंदिर देलवाड़ा के दक्षिण में पर्वत की तलहटी में स्थित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें देव मूर्ति के स्थान पर दो पाषाण मूर्तियाँ स्थापित है। इन दोनों मूर्तियों में से एक मूर्ति युवक की है, जिसके हाथ में विष का प्याला है तथा दूसरी मूर्ति युवती की है। यह एक प्रेम प्रासंगिक मंदिर है इसी कारण इसे रसिया बालम का मंदिर भी कहा जाता है।
 
धौलपुर जिले के मंदिर (RJ-11)
 
मचकुण्ड महादेव मंदिर (धौलपुर)- गंधामदन पर्वत पर स्थित
 
इस मंदिर के जलकुण्ड में स्नान करने से चर्म रोग से मुक्ति मिलती है, तो वहीं मचकुण्ड को तीर्थों का भांजा कहा जाता है।
 
महादेव मंदिर, सैंपऊ (धौलपुर)- यहाँ स्थित शिवलिंग पर
 
गंगाजल लाकर अभिषेक किया जाता है।
 
जैसलमेर जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-15)
 
चुंधी गणेश तीर्थ मंदिर (जैसलमेर) – इसमें घर बनाने की मन्नत
 
पूरी होती है तथा यहाँ स्थित गणेशजी की मूर्ति जमीन से प्रकट हुई है, तो वहीं मंदिर के पास दो कुएँ हैं जिनमें गंगा का पानी आता है।
 
गजमंदिर (जैसलमेर) – इस शिव मंदिर का निर्माण महाराजा गजसिंह की रानी रूपकंवर ने करवाया।
 
लक्ष्मीनाथ जी मंदिर (जैसलमेर) – जैसलमेर दुर्ग में स्थित इस
 
मंदिर का निर्माण महारावल वैरिसिंह के समय में हुआ। यहाँ विष्णु व लक्ष्मी की युग्म मूर्ति स्थापित है, तो वहीं माना जाता है कि यह मूर्ति 1437 ई. में मेड़ता से लायी गई थी। उल्लेखनीय है कि जैसलमेर के शासक लक्ष्मीनाथ जी को जैसलमेर का वास्तविक शासक तथा स्वयं को उनका दीवान मानते थे।
 
सूर्य मंदिर (जैसलमेर) – महारावल वैरिसिंह द्वारा अपनी रानी सूर्य कंवर के नाम पर इसका निर्माण करवाया गया।
 
रत्नेश्वर महादेव मंदिर (जैसलमेर) जैसलमेर दुर्ग में स्थित इस मंदिर का निर्माण वैरिसिंह ने अपनी रानी रत्ना के नाम पर करवाया।
 
पाली जिले के प्रमुख मंदिर (RJ-22)
 
कामेश्वर मंदिर (आऊवा, पाली)- इसका निर्माण 850 ई. में
 
गुर्जर-प्रतिहार शैली में करवाया गया।
 
सोमनाथ मंदिर (पाली) इसका निर्माण 1152 ई. में कुमारपाल सोलंकी ने करवाया।
 
निम्बों का नाथ (पाली) – यहाँ नाथ महादेव का मंदिर है। माना जाता है कि यहाँ कुंती शिव पूजा करती थी।
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